उप्र के मुख्यमंत्री अखिलेश ने हार मानी, इस्तीफा दिया

लखनऊ , 11 मार्च | उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी हार स्वीकार करते हुए शनिवार को पद से इस्तीफा दे दिया। वह मायावती के उठाए इस मुद्दे से सहमत हैं कि ईवीएम में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी की गई, जांच होनी चाहिए। सरकारी आवास 5, कलिदास मार्ग पर पत्रकारों से बातचीत करने के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश राजभवन गए। उन्होंने राज्यपाल राम नाईक को अपना इस्तीफा सौंपा।

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश ने इससे पहले, सरकारी आवास पर मीडिया से कहा, “बसपा की नेता ने ईवीएम को लेकर जो सवाल उठाए हैं, उससे सहमत हूं। मैं बूथ लेवल पर इसकी सच्चाई जानने की कोशिश करूंगा।”

उन्होंने कहा, “मुझे खुशी है कि हमने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, दो युवा नेता साथ आए, आगे भी यह गठबंधन जारी रहेगा। मैं जनता को उनके निर्णय पर बधाई देता हूं। लोकतंत्र में यही होता है।”

अखिलेश कहा कि अब देखना है कि नई सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में किसानों का कर्ज माफ करने पर फैसला होता है या नहीं। अगर उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ होता है तो लगता है कि पूरे देश के किसानों का कर्ज भी माफ हो जाएगा।

मुख्यमंत्री ने कहा, “हमें उत्तर प्रदेश में पांच वर्ष काम करने का मौका मिला। मुझे उम्मीद है कि आने वाली सरकार समाजवादी सरकार से भी अच्छा काम करेगी। सड़कें बनवाएगी। हमारे अधूरे कार्यो को पूरा करेगी। मुझे लगता है कि आने वाले समय में मेरी सरकार फिर आएगी।”

कहा जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उप्र से होकर जाता है। 2014 में भी भाजपा ने जब पूर्ण बहुमत की सरकार केंद्र में बनाई तो उप्र ने 71 सांसद पार्टी को दिए। ऐसे में मोदी और अमित शाह ब्रिगेड को चुनौती देना उतना आसान नहीं था। बावजूद इसके अखिलेश यादव अपने दम पर उप्र के रणक्षेत्र में कूद गए।

अखिलेश ने अपने पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल यादव को किनारे कर दिया। पार्टी पर खुद कब्जा कर लिया। मुलायम ने अपनी छोटी बहू अपर्णा यादव का ही प्रचार किया। शिवपाल यादव भी बस जसवंतनगर की अपनी सीट तक ही सीमित रहे। जबकि, एक समय में मुलायम-शिवपाल की जोड़ी वह जोड़ी थी जिसने उप्र की सत्ता से कांग्रेस और भाजपा को बाहर कर समाजवादी का परचम लहराया था। लेकिन, इस बार पूरे चुनाव में मुलायम-शिवपाल घर में ही बैठे रहे।

अखिलेश ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के इरादे से राहुल गांधी के साथ गठजोड़ किया। गठबंधन के तहत कांग्रेस को 105 सीटें दी गईं। ऐसे में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं में इस फैसले से गुस्सा पनपा। नतीजा ये रहा कि समाजवादी पार्टी में भितरघात की खबरें आईं। सवाल उठा कि जब कांग्रेस को देश की राजनीति का डूबता जहाज माना जा रहा है तो ऐसे में उससे गठबंधन का क्या तुक है।

उप्र में कांग्रेस की अपनी कोई खास जमीन नहीं बची है। शिवपाल यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन पर सवाल उठाते हुए कहा था कि जिस पार्टी की चार सीटें जीतने की हैसियत नहीं, उसे 105 सीटें देना नुकसानदायक होगा। अब यह लग रहा है कि इससे नुकसान हुआ है।

उप्र में सात चरणों में चुनाव पूरे हुए। करीब एक महीने तक चले चुनाव में अखिलेश ने 250 के आस-पास रैलियां की। अखिलेश ने अपनी हर रैली में विकास के नाम पर वोट मांगा। लेकिन, विकास के नाम पर अखिलेश के पास एक्सप्रेस-वे के अलावा कोई खास मुद्दा नहीं रहा। बिजली और बिगड़ी कानून व्यवस्था सीधे तौर पर अखिलेश के खिलाफ बड़ा मुद्द बने।

बसपा अध्यक्ष मायावती ने साफतौर पर उप्र के मुिस्लम वोटरों से हाथी का साथी बनने की अपील की। मायावती ने मुसलमानों के बीच ये संदेश दिया कि उप्र में भाजपा को रोकना है तो मुसलमानों को बसपा को वोट देना चाहिए। इसी रणनीति के चलते मायावती ने मुस्लिम उम्मीदवारों की लाइन लगा दी। मायावती की यह ‘सोशल इंजीनियरिंग’ उनके तो काम नहीं ही आई, अखिलेश को भी इसने किनारे लगा दिया।

2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। पार्टी महज पांच सीटों पर सिमट गई थी। नतीजों के बाद मुलायम का भरोसा अखिलेश से उठ सा गया था। मुलायम ने कई बार सार्वजनिक मंचों पर कहा कि लोकसभा चुनाव में अखिलेश के कहने पर टिकट बांटे गए और पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा।

यही वजह थी कि विधानसभा चुनाव से पहले परिवार के बीच लंबी खींचतान चली। मुलायम और शिवपाल नहीं चाहते थे कि टिकट बांटने का अधिकार अखिलेश को मिले। टिकट बांटने के अधिकार से जो झगड़ा शुरू हुआ वो आखिरकार अखिलेश को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने तक पहुंचा और जिसने पार्टी की चुनावी नाव डुबोने में खास भूमिका निभाई।

–आईएएनएस

(फाइल फोटो)