देश के 62 फीसदी सरकारी अस्पतालों में प्रसूति रोग विशेषज्ञ नहीं

नई दिल्ली, 14 सितंबर | देश के 62 फीसदी सरकारी अस्पतालों में प्रसूति रोग विशेषज्ञ नहीं हैं ।  इस साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आधिकारिक रूप से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले एक लाख परिवारों को सुरक्षा तंत्र देने का वादा किया था।

हमारे जिला स्तरीय घरेलू सर्वेक्षण (डीएलएचएस-4) के आंकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक, देश के 62 फीसदी सरकारी अस्पतालों में प्रसूति रोग विशेषज्ञ नहीं हैं और अनुमान है कि करीब 22 फीसदी उपकेंद्रों में सहायक नर्स दाइयों (एएनएम) की भी कमी है।

शिशु और मातृ मृत्युदर को रोकने में स्त्रीरोग विशेषज्ञ और नर्स दाइयों की बड़ी भूमिका है, लेकिन इनकी संख्या जरूरत से काफी कम हैं।

शोध के अन्य प्रमुख निष्कर्ष :

–भारत के 30 फीसदी जिलों में एएनएम की सुविधा वाले उपकेंद्र अपनी क्षमता से दोगुने मरीजों की देखभाल कर रहे हैं।

–करीब 65 फीसदी अस्पताल सरकार के मानकों की तुलना में अधिक रोगियों की सेवा कर रहे हैं और अगर हम अस्पताल के कर्मी के रूप में प्रसूति रोग विशेषज्ञ को भी शामिल करें तो यह आंकड़ा बढ़कर 95 फीसदी हो जाती है।

–करीब 80 फीसदी सार्वजनिक अस्पताल सरकारी मानकों से दोगुने मरीजों को संभाल रहे हैं।

इंडियास्पेंड की मई 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक, मातृ एवं शिशु मृत्युदर को कम करने में भारत की धीमी प्रगति के आलोक में इन आंकड़ों पर गौर कीजिए। तथ्य यह है कि साल 2011-12 में 10 में से 8 बच्चे अस्पताल में पैदा हो रहे हैं, जबकि 2005-06 में यह आंकड़ा 41 फीसदी था। इसके बावजूद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ब्रिक देशों में नवजात मृत्यु दर सबसे अधिक है।

भारत के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनएचआरएम) के 2004-06 के सर्वेक्षण के मुताबिक 1,00,000 जन्म देनेवाली महिलाओं में 256 की मौत जचगी के दौरान हो जाती है। हालांकि भारत का मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) में 30 फीसदी सुधार हुआ है और यह प्रति एक लाख जन्म पर घटकर 178 मौत तक आ चुका है।

लेकिन विश्वबैंक के नवीनतम अनुमानों के मुताबिक यह आंकड़ा अपने पड़ोसी देशों श्रीलंका (30), भूटान (148), कंबोडिया (161) से भी बुरा है और ब्रिक देशों में रूस (25), चीन (27), ब्राजील (44) और दक्षिण अफ्रीका (138) में सबसे बुरा है।

ग्रामीण इलाकों में किफायती स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने और मातृ शिशु मृत्यु दर को घटाने तथा स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए 2005 में एनआरएचएम की शुरुआत की गई है। 2013 में इस मिशन का नाम बदल कर राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना (एनएचएम) कर दिया गया और इसे दो भागों में बांट दिया गया, एनआरएचएम और राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम)।

एनआरएचएम का वित्तवर्ष 2005-06 में बजट 6,713 करोड़ रुपये था, जो वित्तवर्ष 2015-16 में बढ़कर 11,196 करोड़ रुपये हो गया। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) के 2008 में लागू होने से गरीबों को बीमारियों के इलाज के लिए खर्च करने में मदद मिलेगी।

ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी (आरएचएस) के आकंड़ों के मुताबिक, स्वास्थ्य उपकेद्रों की संख्या में 5 फीसदी की बढ़ोतरी के बावजूद जो 2005 में 1,46,026 से बढ़कर 1,53,655 हो गई। लेकिन इन केंद्रों में पर्याप्त डॉक्टर या नर्स ही नहीं है।

हमारे विश्लेषण के डीएलएचएस आंकड़ों से यह खुलासा होता है कि भारत के स्वास्थ्य सुविधाओं का एक बड़ा हिस्सा प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारियों से महरूम है। जो कर्मचारी काम कर रहे हैं, उन पर भी मरीजों का भारी बोझ है। साथ ही यह समस्या सार्वजनिक अस्पतालों और ग्रामीण क्षेत्रों में काफी गंभीर है।

(आंकड़ा आधारित, गैर लाभकारी, लोकहित पत्रकारित मंच, इंडिया स्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत)