वेदों में राष्ट्र और स्वराज्य

वेदों में राष्ट्र और स्वराज्य

संसार प्रसिद्ध लेखक और विचारक रोम्या रोलां ने हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था- ‘‘मैंने यूरोप और एशिया के सभी धर्मों का अध्ययन किया है, परन्तु उन सब में मुझे हिन्दू धर्म ही श्रेष्ठ दिखाई दिया। मेरा विश्वास है कि एक दिन इसके सामने संसार को सिर झुकाना होगा।’’

वस्तुतः उपरोक्त विचार को पढ़कर प्रत्येक हिन्दू को गर्वानुभूति होती ही है। हिन्दू धर्म हमेशा से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उदार भावना को लेकर चला है। आज हमारा जो भी अस्तित्व सुरक्षित है, जितनी भी हमारी निधि है, यह सब हमारे उच्च व्यवहार और सदाचार का ही परिणाम है।

वर्तमान में हम घोर संकटापन्न स्थिति के मध्य गुजर रहे हैं। यह स्थिति हमारे लिए अत्यन्त शोचनीय है। अगर सम्पूर्ण राष्ट्र में, राष्ट्र को अपना समझने का भाव आ जाए तो कोई प्रश्न नहीं उठता कि हम अपने प्रति शंका का दृष्टिकोण रखें।

‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी’ का भाव आज न जाने कहां विलुप्त हो गया है। आर्य संस्कृति, जिसके मूल में, कितने ही ठोस रूप में राष्ट्र के प्रति सर्वस्व समर्पण का भाव दर्शाया गया है।

‘राष्ट्र’ शब्द आर्यों की सबसे अमूल्य निधि है। क्योंकि इसके अन्तर्गत देश, जाति, व्यवहार और संस्कृति सभी कुछ आ जाता है।

राष्ट्र शब्द वैदिक साहित्य की सबसे बड़ी देन है। इससे आर्यों की उच्च भावना का पता चलता है।

ऋग्वेद में राष्ट्र शब्द की कई बार पुनरावृत्ति हुई है। ऋग्वेद में लिखा है-

ध्रुव ते राजा वरणो, ध्रुव देवो बृहस्पतिः,

ध्रुवं त इन्द्रश्चाग्निश्च, राष्ट्रं धारयतां ध्रुवम्।।

अर्थात् वरुण राष्ट्र को अविचल करें, बृहस्पति स्थायित्व प्रदान करें, इन्द्र राष्ट्र को सुदृढ़ करें और अग्नि राष्ट्र को निश्चल रूप से धारण करें।

आर्यों में राष्ट्र प्रेम की भावना कूटकूट कर भरी थी। सच्चे अर्थों में आर्य मातृभूमि की रक्षार्थ सर्वार्पण की ज्योति को अखण्ड रखते आए हैं।

हमारे वैदिक साहित्य में स्थान-स्थान पर राष्ट्र की महिमा का गान किया गया है। राष्ट्र की रक्षा में सर्वदा तत्पर रहना, मातृभूमि के प्रति वफादार बनना आर्यों का प्रमुख कर्त्तव्य था।

आर्य लोग अपने राष्ट्र की सुरक्षा और उत्थान को दृष्टिगत रखते हुए अपना नेतृत्व प्रतिभाशाली और कर्मठ हाथों में ही सौंपते थे।

राज्याभिषेक के समय आर्य लोग अपने चुने हुए राजा को सम्बोधित करते हुए कहते-

आ स्वाहार्षमन्तरेधि, ध्रुवस्तिष्ठा विचाचलिः,

दिशत्स्वा सर्वा वांछतु, मास्वद्राष्टमधि भ्रशत्।।

अर्थात् राजन्! तुम्हें राष्ट्रपति बनाया गया है। तुम इस देश के प्रभु हुए हो। अटल,अविचल और स्थिर रहो। प्रजा (विश) तुम्हें चाहती है। राष्ट्र नष्ट न होने पावे।

आर्यों का उपरोक्त कथन उनका राष्ट्र अथवा मातृभूमि के संदर्भ में सजग-भावना का उदाहरण है। यही कारण है कि वीरत्व की परम्परा अभी तक अमर है।

राज्याभिषेक के पश्चात् राष्ट्रपति या राजा प्रतिज्ञाबद्ध होकर कहता है-

अहमास्मि सहमान उत्तरो, नाम भूम्याम्।

अभिषास्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहि।।

अर्थात् मैं अपनी मातृभूमि के लिए और उसके दुःख विमोचन के लिए सब प्रकार के कष्ट सहने को तैयार हूँ-वे कष्ट जिस ओर से आवें, जिस समय आवे, मुझे चिन्ता नहीं।

आज जहां हम स्वराज्य की बात करते हैं वस्तुतः वह स्वराज्य हमारे वैदिक स्वराज्य से कोसों दूर है। यह हमारे लिए लज्जास्पद् और हमारे सम्मान और स्वाभिमान के लिए खुली चुनौती है।

ऐतरेय ब्राह्मण के आठवें अध्याय में स्वराज्य के सम्बन्ध में लिखा है कि सही अर्थों में स्वराज्य आत्मशुद्धि के लिए सब से उत्तम और सर्वोपरि है। जहां हमें किसी स्वार्थ के वशीभूत न होकर निष्काम भाव से सभी नियमों का पालन करना होता है। स्वराज्य में लोेग अधिकार के लिए लड़ते नहीं हैं और न ही सीमा-प्रसार की कुत्सित भावना ही होती है।

सच्चे अर्थों में स्वराज्य का मतलब चोर बाजारी, भ्रष्टाचार आदि से रहित विशुद्ध राष्ट्र प्रेम की भावना से है। तत्कालिक स्वराज्य में जन और ऋषि इस बात के लिए प्रतिज्ञाबद्ध रहते-

व्यचिष्ठेबहुपाय्ये यतेमहिस्वराज्ये।

अर्थात् सुविस्तीर्ण और बहुमत से रक्षित स्वराज्य की भलाई के लिए हम यत्न करते रहेंगे।

– लेखक: बृजेन्द्र रेही

(जनसम)