बेतुके बांध-बैराज, तटबंध आपदा को खुला आमंत्रण

क्या हमने नदियों की स्वतंत्रता छीन ली है, या फिर उनकी अविरल धारा से छेड़खानी की? तटबंध, बांध-बैराज तबाही के कारण क्यों बने? क्या जलप्रबंधन और संचय की प्राकृतिक और पुरातन व्यवस्था कमतर थी जो यकायक आधुनिक तकनीक पर अंधविश्वास कर बैठे? या फिर नीति निमार्ताओं का ज्ञान अधकचरा है?

जो कुछ हो, स्वतंत्रता के बाद अब तक जल प्रबंधन के लिए गैर नियोजित तरीके से नफा-नुकसान का ईमानदार आकलन किए बिना राजनीतिक दबाव या भ्रष्टतंत्र की आहुति चढ़ने जो भी योजनाएं राजनीतिक गलियारों से आईं, सभी भयावह त्रासदी का कारण बनीं।

जल संचय के नाम पर नदियों के साथ मनमानी करने वालों की अभी बोलती बंद है, मगर इसका खामियाजा हजारों-लाखों बेकसूर उठा रहे हैं वह भी ऐसा, जिसकी पूर्ति कभी संभव नहीं। उफनती बाढ़ न लीली जिंदगियां लौटाएगी और न ही संपत्ति। बाढ़ की तबाही ने जहां-जहां, जो दर्द दिया, निश्चित रूप से किसी काले अध्याय से कम नहीं।

फोटो  – नामकुन,रांची में सुवर्णरेखा नदी का तटबंध।

एक महत्वपूर्ण तथ्य, अंग्रेजों ने दामोदर नदी को नियंत्रित करने के लिए 1854 में उसकी दोनों ओर बांध बनवाए, लेकिन 1869 में बांध को तोड़ दिया। उन्हें समझ आ गया कि प्रकृति से छेड़छाड़ ठीक नहीं। अंग्रेजों ने भारत में आखिरी दिनों तक किसी नदी को बांधने का प्रयास नहीं किया।

कम ही लोग जानते होंगे कि एक विलक्षण प्रतिभाशाली इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने फरक्का बैराज और दामोदर घाटी परियोजना का विरोध किया था।

योजना की रूपरेखा आते ही 40 वर्ष पहले उन्होंने जो प्रभावी और अकाट्य तर्क दिए थे, उनका प्रतिवाद तो नहीं किया गया, अलबत्ता उन्हें बर्खास्त जरूर कर दिया गया। अब उनकी बातें, हू-ब-हू सच हो रही हैं।

भट्टाचार्य ने बाकयदा लेख लिखकर चेताया था कि दामोदर परियोजना से, पश्चिम बंगाल के पानी को निकालने वाली हुगली प्रभावित होगी, भयंकर बाढ़ आएगी, कलकत्ता बंदरगाह पर बड़े जलपोत नहीं आ पाएंगे। नदी के मुहाने, जमने वाली मिट्टी साफ नहीं हो पाएगी, गाद जमेगी और जहां-तहां टापू बनेंगे। दो-तीन दिन चलने वाली बाढ़ महीनों रहेगी। उनकी कही बातें सच साबित हुईं, स्थितियां और भी बदतर हुईं।

1971-72 में फरक्का बैराज के बनते ही सूखे दिनों में गंगा का प्रवाह मद्धिम पड़ने से नदी में मिट्टी भरने लग जाती और कटान से नदी का रुख बदलने लगता था। गंगा का जल कहीं तो जाना था, उसने बिहार-उत्तर प्रदेश के तटीय क्षेत्रों को चपेट में लिया।

इस बीच मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश व बिहार में सिंचाई और जलविद्युत परियोजना के नाम पर मप्र के शहडोल जिले में बाणसागर बांध निर्माण की अवधारण बनी, बांध भी बना। तयशुदा पन-बिजली तो नहीं बनी, अलबत्ता हर औसत बारिश में मप्र, बिहार व उप्र बाढ़ के मंजर से जूझने लगे। बाढ़ ने इस साल तो हद कर दी।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं भी राज्य में इस प्राकृतिक आपदा के लिए सोन नदी पर बने बाणसागर बांध और पश्चिम बंगाल में गंगा पर बने फरक्का बैराज को जिम्मेदार मानते हैं। फरक्का से बैराज से जल निकासी में कमी के कारण गाद जमा होने लगी, जिससे नदी का तल उथला होता गया।

इधर, बाणसागर बांध के संचालन में लापरवाही से पानी यकायक बढ़ा और बिहार में 14 प्रतिशत कम बारिश के बावजूद बाढ़ का अभूतपूर्व मंजर दिखा।

आखिर बांध की उपोयोगिता पर ही सवाल उठे, नीतीश कुमार कई वर्षो से मांग कर रहे हैं कि फरक्का बैराज की उपयोगिता का स्वतंत्र मूल्यांकन तथा राष्ट्रीय गाद प्रबंधन नीति (जो है ही नहीं) बने। उनकी मांगें जायज भी हैं। लेकिन सवाल यही कि क्या बाढ़ या डूब भारत में सिर्फ कुछ ही भू-भागों की समस्या है? हरगिज नहीं। पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक भारत में बाढ़ का जहां-तहां खतरा बना ही रहता है।

गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, कोसी, सोन, नर्मदा, ताप्ती, गंडक, पार्वती, चंबल, परवन, चिनाब, अय्यर और न जाने कितनी नदियों से पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा-पंजाब, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर,आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु भी बाढ़ से प्रभावित होते रहते हैं। 400 लाख हेक्टेयर भारतीय भू-भाग बाढ़ के राडार वाला है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का आठवां भाग है।

औसतन 77 लाख हेक्टेयर भू-भाग हर वर्ष बाढ़ से प्रभावित होता है। फलत: 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल की फसलें नष्ट हो जाती हैं। इस बार 12 राज्यों के 50 लाख से ज्यादा लोग बाढ़ प्रभावित हैं, जबकि लगभग 100 लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा क्षेत्रफल की फसलें नष्ट होने का अनुमान है।

कुदरत के कहर का भयावह त्रासद नजारा 2013 में भी दिखा। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में इसकी प्रमुख वजह बीते दशक में ताबड़तोड़ पनबिजली परियोजनाएं, बांधों, सड़कों, होटलों का निर्माण है। अलकनंदा, मंदाकिनी, और भगीरथी की घाटियों में लगभग 70 पन-बिजली परियोजनाएं हैं। इनके लिए बांध और सुरंग बनाने, बार-बार पहाड़ों पर विस्फोट किए गए, जिससे चट्टानें ढीली हुईं और बारिश में ऊपर की मिट्टी धुली तो चट्टानें लुढ़कीं और नीचे गिर तबाही का कारण बनीं।

गुजरात में मच्छू बांध टूटने पर मोरवी शहर की दुर्दशा याद कर रूह कांप उठती है। 1988 में पंजाब में जानलेवा बाढ़। लाखों बेघर, बहुत सी मौतें और संपत्ति का आंकलन तो बेमानी सा। भाखड़ा और सहायक बांधों से अधिक पानी छोड़े जाने से यह स्थिति बनी।

पहाड़ों में वन-विनाश और भू-कटाव भी बाढ़ का प्रमुख कारण बने, जिससे जलाशयों में मिट्टी-गाद भर गई। वर्षाजल के प्रवाह को कम करने वाले पेड़ पहले ही कट चुके हैं। नतीजा, जल रोकने की क्षमता घटी।

ये तो त्रासद, दर्शित-चर्चित हकीकत हैं। लेकिन चौंकाने वाली अहम बात यह कि पर्यावरणीय क्षति का आकलन करने वाले ‘विश्व बांध आयोग’ की रिपोर्ट का खुलासा बताता है कि भारत में बड़े-बड़े बांधों में आधे से ज्यादा ऐसे हैं, जिनमें अनुमानित विस्थापितों की संख्या दुगुनी से भी ज्यादा है।

आयोग बड़े बांधों की उपोयोगिता तो स्वीकारता है, लेकिन यह भी कहता है कि निर्माण में बराबरी, दक्षता, सहभागी निर्णय प्रक्रिया, टिकाऊपन और जवाबदारी जैसे पांच बुनियादी सिद्धांतों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के साथ ही बांध के दूसरे सारे विकल्पों की भली-भांति जांच जरूरी है।

क्या भारत में हर वह विषय जो कितना संवेदनशील हो, सभी मानक मापदंडों पर खरा उतरने के बाद ही क्रियान्वित होगा? शायद नहीं, क्योंकि हमारा तंत्र कथित विद्वान ‘ब्यूरोक्रेट्स’ द्वारा जनमत के ‘डेमोकेट्र्स’ को जो समझाया जाता है, वो मान लेते हैं। ज्यादातर जनप्रतिनिधियों को रीति-नीति, सिद्धांतों और बाद के प्रभावों से कोई फर्क नहीं पड़ता।

भला हो उन जुझारू पर्यावरणविदों, आंदोलनकारियों का जो इस मुद्दे को आमजन तक पहुंचाकर मानव और प्रकृति के हित में अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं।== ऋतुपर्ण दवे

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)