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प्राचीन भारतीय सिक्कों की एक प्रदर्शनी भोपाल में

भोपाल, 10 अक्टूबर(जनसमा)। प्राचीन भारतीय सिक्कों की एक प्रदर्शनी भोपाल में मंगलवार से शुरू होरही है। पुरातत्वविद् भारत में सिक्कों का प्रचलन ई.पू. 800 के लगभग से मानते हैं। भारत में सिक्कों के उद्भव की कहानी मानव सभ्यता के विकास से जुड़ी है।

इस प्रदर्शनी में उज्जयिनी के सिक्के देखने को मिलेंगे जिन पर शिव पार्वती अंकित है। प्रदर्शनी में गुप्त काल की स्वर्ण मुद्रा  और मोहम्मद गजनी के शासनकाल की संस्कृत लिपि में अंकित मुद्रा भी देख सकेंगे।

संचालनालय पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय द्वारा प्राचीन भारतीय सिक्कों पर आधारित छायाचित्र प्रदर्शनी राज्य संग्रहालय के प्रदर्शनी सभागृह में 10 से 17 अक्टूबर तक लगाई जाएगी। आमजन प्रदर्शनी को रोजाना सुबह 10.30 बजे से शाम 5.30 बजे तक नि:शुल्क देख सकेंगे।

पुरातत्व आयुक्त अनुपम राजन ने जानकारी देते हुए बताया कि भारत में सिक्कों के उद्भव की कहानी मानव सभ्यता के विकास से जुड़ी है। मनुष्य के क्रमिक बौद्धिक विकास से ही सिक्कों का जन्म हुआ है। संस्कृतियों के उदभव एवं विकास का सिक्कों की कहानी से प्रत्यक्ष संबंध रहा है।

सिक्कों की कहानी का दिलचस्प इतिहास

सिक्कों की कहानी की प्रथम अवस्था पाषाणकालीन है, जिसमें उनकी आवश्यकताएँ सीमित थी। प्रागैतिहासिक काल के बाद द्वितीय अवस्था आद्य-ऐतिहासिक काल में धीरे-धीरे लोगों के जीवन में स्थिरता आने लगी।

इस काल में लोगों को कृषि का प्रारंभिक ज्ञान हुआ तथा अन्न पैदा करने के साथ ही पशुपालन करने लगे। वस्तुओं की अदला-बदली में कठिनाइयों को देखते हुए ऐसा सोचा गया कि कोई ऐसी वस्तु निर्धारित की जाये जिसको मूल्य की इकाई (माध्यम) मान लिया जाए। गाय को इस इकाई के रूप में मान्यता प्रदान हुई। आवश्यकतानुसार भेड़, बकरी, अनाज, चमड़ा, पत्थर के औजार को भी विनिमय में माध्यम बनाते थे।

आज भी देहातों में किसान अनाज देकर अन्य आवश्यक वस्तुएँ खरीदते हैं। यह सिक्कों के विकास का द्वितीय चरण था। यह बार्टर पद्धति बहुत समय तक प्रचलित रही। ई.पू. पाँचवी शती तक ‘गाय मूल्य’ का माध्यम मानी जाती रही है। किन्तु विनिमय में धातु-पिंडों का प्रयोग आरंभ हो जाने से इसमें गाय का महत्व धीरे-धीरे कम हुआ।

सिक्कों के विकास क्रम की तृतीय अवस्था में वस्तुओं के क्रय-विक्रय हेतु धातुओं के टुकड़ों को माध्यम माना गया। चतुर्थ अवस्था में धातुओं के सिक्के बनाये जाने लगे। उन पर कोई चिह्न अंकित नहीं होते थे। वास्तविक सिक्कों पर निर्धारित चिह्नों का होना जरूरी था, इससे तौल निश्चित रहती थी। धातु के टुकड़ों पर सम्मानित व्यक्ति की मुहर लगाई जाती थी ताकि लोगों को विश्वास रहे कि उस सिक्के की धातु शुद्ध तथा वजन सही है।

प्राचीन ग्रन्थकारों ने सिक्कों के बारे में विस्तृत रूप से लिखा है कि जिन क्षेत्रों में जो धातु अधिक मिलती थी, वहाँ उस धातु को सिक्के के रूप में प्रयोग में लाते थे। मध्यप्रदेश के बालाघाट में तांबा सर्वाधिक मिलता था। आन्ध्रप्रदेश में सीसा तथा मैसूर में सोना अधिक होता था। इस प्रकार के सिक्के एरण, विदिशा, उज्जैन, मंदसौर, महेश्वर, कोशांबी आदि से मिले हैं।

‘सिक्को की कहानी’ प्रदर्शनी में भारत में ई.पू. छठी शती के बाद सिक्कों के विकास क्रम का व्यवस्थित रूप मिलता है जो ब्रिटिश काल तक अनवरत चलता रहा।

मुस्लिम काल में दिल्ली सुल्तान, प्रान्तीय सुल्तानों, मुगलों और मराठों के सिक्के स्वर्ण, रजत एवं ताम्र धातुओं के मिलते हैं जो तत्कालीन अर्थ-व्यवस्था के आधार-स्तम्भ को समाहित कर प्रदर्शित किया गया है।