भगत सिंह के गुरू : शहीद करतार सिंह सराभा

नवनीत मेंहदीरत्ता===

यह आजादी से पूर्व के भारत की एक कहानी है, जब पंजाब का एक बेहद युवा क्रांतिकारी फांसी के तख्ते पर भेजे जाने की अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। यह मात्र 19 वर्ष का करतार सिहं सराभा था जो लाहौर विवाद में अपनी कथित भूमिका में शामिल अन्य 27 क्रांतिकारियों में से एक था। उसके दादाजी उससे मिलने लाहौर जेल आए। उन्होंने कहा, ‘‘करतार सिंह, हमें अभी भी विश्वास नहीं होता कि देश को तुम्हारी कुर्बानी से फायदा होगा। तुम अपनी जिंदगी क्यूं बर्बाद कर रहे हो? अपने जवाब में करतार सिंह ने अपने दादाजी को कुछ रिश्तेदारों की याद दिलाई जो हैजा, प्लेग अथवा अन्य बीमारियों से मर गये थे। तो क्या आप चाहते हैं कि आपका पोता एक ऐसी कष्टकारक बीमारी से मरे? क्या यह मौत उससे हजार गुना बेहतर नहीं है? बुर्जग व्यक्ति की वाणी को मौन करते हुए उसने पूछा।

अनेक क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा बने करतार सिहं को भगत सिंह अपने गुरू की संज्ञा देते थे, करतार सिंह ने अपने मामले की सुनवाई के दौरान अपने लिए कोई भी वकील लेने से इंकार कर दिया था। न्यायाधीश ने अपनी सज़ा सुनाते हु ए उन्हें सभी विद्रोहियों में सबसे खतरनाक बताते हुए कहा चूंकि उन्हें अपने किए गये अपराध पर बेहद अभिमान है, इसलिए वह किसी भी तरह की दया का पात्र नहीं हैं और उन्हें फांसी की सजा दी जानी चाहिए। 16 नवम्बर, 1915 को करतार सिंह होठों पर मुस्कान लिए, आंखों में चमक के साथ अपना लिखा हुआ देशभक्ति का गीत गाते हुए फांसी की फंदे पर झूल गये।

अपनी मातृभक्ति के प्रति प्रेम करतार सिंह के प्रारंभिक जीवन में ही नज़र आता था। उनका जन्म 24 मई, 1896 को लुधियाना के सराभा जिले में एक जाट सिक्ख परिवार में हुआ। करतार सिंह अपनी प्रिय माता साहिब कौर और स्नेही पिता मंगल सिंह के इकलौते पुत्र थे। उन्होंने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया और उनके दादाजी ने उनका लालन-पालन किया। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गांव से ही प्राप्त की और मिशन हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। जब वह 16 वर्ष के हुए तो उनके दादाजी ने उन्हें कैमिस्ट्री के अध्ययन के लिए बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय भेज दिया।

सैन फ्रांसिसको पहुंचने पर आप्रवासन के समय हुई एक घटना ने उनका जीवन सदा के लिए बदल दिया। उन्होंने गौर किया कि भारतीयों से अपमानजनक सवाल पूछे जा रहे थे जबकि अन्य क्षेत्रों और देशों से आए प्रवासियों को न्यूनतम औपचारिकताओं के बाद मंजूरी दे दी गई थी। उन्हें बताया गया कि यह इसलिए था क्योंकि ‘‘भारतीय गुलाम थे’’ इसलिए वे दूसरे दर्जे के नागरिक थे।

इससे भड़के हुए स्वाभिमानी जाट सिक्ख ने भारत में ब्रिटिश राज के अस्तित्व पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। बर्कले में नालंदा समूह के भारतीय छात्रों के समूह ने उनकी इन देशभक्ति की भावना को बल दिया और वह अक्सर अमरीका में भारतीय प्रवासियों खासतौर पर श्रमिकों के साथ होने वाले बर्ताव को लेकर उत्तेजित हो जाते थे। करतार सिंह ने भी अपनी शिक्षा में मदद के लिए फल चुनने का कार्य किया और उन्होंने पाया कि भारतीय कृषि श्रमिकों के साथ क्षुद्र ढंग से बर्ताव किया जाता था और मजदूरी के मामले में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता था।

इस प्रकार, जब 1913 में गदर आंदोलन का शुभारंभ हुआ, तो करतार सिंह इसके एक महत्वपूर्ण सदस्य बन गये। गदर पार्टी का गठन 21 अप्रैल, 1913 को ओरेगन में भारतीयों द्वारा ब्रिटिश को भारत से बेदखल करने के उद्देश्य के साथ किया गया था, जिसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। करतार सिंह को गदर पार्टी के मुखपत्र पर पंजाबी भाषा का संस्करण निकालने के लिए प्रभारी बनाया गया था। पंजाबी के अलावा गदर को हिंदी, उर्दू, बंगाली, गुजराती और पश्तो में प्रकाशित किया गया और इसे पूरी दुनिया में भारतीयों के पास भेजा गया। अखबार में अंग्रेजों के अत्याचारों का उल्लेख किया गया और इसने प्रवासी भारतीयों के बीच में क्रांतिकारी विचारों की अलख जगा दी।

जल्द ही, प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया और गदर सदस्यों ने यह फैसला किया है कि यही समय है जब इसका स्थान बदलते हुए देशवासियों को लामबंद किया जाए। क्योंकि ब्रिटिश विश्व युद्ध में स्वयं को बचाने में व्यस्त हो गये थे,  तो वहीं 5 अगस्त, 1914 को गदर के संस्करण में अंग्रेजों के खिलाफ एक और युद्ध की घोषणा की गई और इसकी प्रतियों को दुनिया भर के भारतीयों के बीच विशेष रूप से ब्रिटिश छावनियों में भारतीय सैनिकों के बीच बांटा गया।

करतार सिंह 15 सितंबर को सत्येन सेन और विष्णु गणेश पिंगले के साथ भारत आ गये और उन्होंने कोलकाता में युगांतर के जतिन मुखर्जीसे मुलाकात की। मुखर्जी ने उनका संपर्क रास बिहारी बोस से करवाया। करतार सिंह ने बोस से बनारस में मुलाकात की और उन्हें 20,000 और गदर सदस्यों के आने और क्रांति की योजना की जानकारी दी।

दुर्भाग्य से, अंग्रेजों को क्रांतिकारियों की योजना की भनक पड़ गई और उन्होंने विद्रोहियों को पकड़ने के लिए व्यापक अभियान छेड़ दिया। बहुत से गदर सदस्यों को बंदरगाहों पर ही गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन वे करतार सिंह को अपनी योजना पर आगे बढ़ने से नहीं रोक सके। करतार सिेंह पंजाब को क्रांति का मुख्य स्थल बनाने की तैयारियों के लिए वहाँ गये। उन्होंने खासतौर पर मेरठ, आगरा, बनारस, इलाहाबाद, अंबाला, लाहौर और रावलपिंडी में ब्रिटिश सेना में शामिल भारतीय सैनिकों का मन बदलने और उन्हें इस आंदोलन में शामिल करने पर ध्यान केन्द्रित किया और इसके साथ-साथ लुधियाना में एक छोटे स्तर की हथियार निर्माण इकाई भी स्थापित कर ली।

बोस सहित अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ विद्रोह की तिथि 21 फरवरी, 1915 निर्धारित की गई और मियां मीर एवं फिरोजपुर की छावनियों में हमले और अंबाला में बगावत की योजना बनाई गयी। यहां भी, एक देशद्रोही ने बगावत से एक दिन पूर्व ही उनके साथ दगाबाजी की और बहुत से क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गये। हालांकि, करतार सिंह अंग्रेजों से बच निकलने में कामयाब रहे। अपने इरादों से पीछे हटने से इंकार करते हुए उन्होंने 2 मार्च, 1915 को सरगोधा में चक संख्या 5 पर 22 घुड़सवार सेना के भारतीय सिपाहियों को उकसाने और बगावत की चिंगारी फूंकने का एक अति साहसिक अंतिम प्रयास किया। लेकिन इस बार, 22 घुड़सवार सेना के रिसालदार गंडा सिंह ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन पर लाहौर षडयंत्र नामक मामले में लाहौर में अन्य गदर सदस्यों के साथ मुकद्मा चला। सितम्बर, 1915 में फैसला सुनाया गया। हालांकि लोगों के भारी विरोध के कारण भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिग के अंतिम क्षण पर किए गये हस्तक्षेप के बाद 27 गदर सदस्यों में से 17 की फांसी की सजा को कारावास भेजने और अंडमान सेलुलर जेल में जीवन भर के निर्वासन में बदल दिया गया।

जल्द ही वह शहादत के प्रतीक बन गये। उनकी बहादुरी और बलिदान से बहुत से लोगों से प्रेरणा ली। पंजाब के एक उपन्यासकार नानक सिंह ने उनके जीवन पर आधारित ‘’इक्क म्यान दो तलवारां’’ नामक उपन्यास लिखा। भारत हमेशा अपने नायक, शहीद करतार सिंह सराभा की स्मृति को सँजो कर रखेगा।

(नवनीत मेंहदीरत्ता पिछले 20 वर्षो से पत्रकार हैं। वह अनेक राष्ट्रीय दैनिकों में विभिन्न पदों पर कार्य कर चुकी हैं।)