सुरेश वाडेकर : पिता के सपनों को लगाया पंख

शिखा त्रिपाठी===

नई दिल्ली, 6 अगस्त | ‘मेघा रे मेघा रे’, ‘मैं हूं प्रेम रोगी’, ‘पतझर सावन वसंत बहार’ जैसे गीतों से पाश्र्वगायन में अपनी अलग पहचान बनाने वाले सुरेश वाडेकर ने अपने पिता का सपना पूरा कर अपने नाम को सार्थक किया है। वह राष्ट्रीय पुरस्कार और लता मंगेशकर अवार्ड से सम्मानित हैं।

अपनी मधुर आवाज से संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले सुरेश वाडेकर का जन्म 7 अगस्त, 1955 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ। उन्हें बचपन से ही गायकी का शौक था। उनके पिता ने उनका नाम सुरेश (सुर+ईश) इसलिए रखा, ताकि वह अपने बेटे को बड़ा गायक बनता देख सकें। सुरेश ने कोशिश जारी रखी और आखिरकार उन्होंने अपने पिता का सपना पूरा किया।

महज 10 साल की आयु से ही उन्होंने संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने इतनी कम उम्र में अपने गुरु पंडित जियालाल वसंत से विधिवत संगीत सीखना शुरू किया। उन्होंने ना सिर्फ हिंदी, बल्कि मराठी सहित कई भाषाओं की फिल्मों के लिए भी गाया और भजनों को अपनी आवाज दी है।

सुरेश ने 20 वर्ष की उम्र में एक संगीत प्रतियोगिता ‘सुर श्रृंगार’ में भाग लिया, जहां संगीतकार जयदेव और दादू यानी रवींद्र जैन बतौर निर्णायक मौजूद थे। सुरेश की आवाज से दोनों निर्णायक इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें फिल्मों में पाश्र्वगायक के लिए भरोसा दिलाया।

रवींद्र जैन ने राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘पहेली’ में उनसे पहला फिल्मी गीत ‘वृष्टि पड़े टापुर टुपुर’ गवाया था।

जयदेव ने उनसे फिल्म ‘गमन’ का ‘सीने में जलन’ गाने का मौका दिया, इसके बाद वह लोकप्रिय होने लगे, सभी उन्हें प्रतिभाशाली गायक की दृष्टि से देखने लगे।

उन्होंने वर्ष 1998 में ‘शिव गुणगान’, 2014 में ‘मंत्र संग्रह’, 2016 में ‘तुलसी के राम’ नामक अलबम बनाए।

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने 1981 की फिल्म ‘क्रोधी’ में ‘चल चमेली बाग में’ नामक गीत लता जी के साथ गाने का मौका दिया। उन्होंने फिल्म ‘प्यासा सावन’ का मशहूर गीत ‘मेघा रे मेघा रे जैसे खूबसूरत सुपरहिट गीत लता जी के साथ गाया। इसमें उन्होंने ‘मेरी किस्मत में तू नहीं शायद’, ‘मैं हूं प्रेम रोगी’ जैसे मधुर गीत गाए। इसके साथ ही उनके सितारे बुलंद होने लगे वह घर-घर पहचाने जाने लगे।

इस फिल्म में ऋषि कपूर के साथ उनकी आवाज इतनी जमी कि उन्हें ऋषि कपूर की फिल्मों के गीतों के लिए चुना जाने लगा।

सुरेश ने कई बड़े संगीत निर्देशकों के लिए गीत गाए। इनमें ‘हाथों की चंद लकीरों का’ (कल्याणजी आनंदजी), ‘हुजूर इस कदर भी न’ (आर.डी. बर्मन), ‘गोरों की न कालों की’ (बप्पी लाहिड़ी), ‘ऐ जिंदगी गले लगा ले’ (इल्लायाराजा) और ‘लगी आज सावन की’ (शिव-हरि), जैसे कई गीत शुमार हैं, जिन्हें सुरेश ने अपनी आवाज में कुछ ऐसे गाया है कि आज भी हम इन गीतों में किसी और गायक की कल्पना नहीं कर पाते।

उन्होंने फिल्मी-दुनिया को ऐसे गीत दिए, जो कभी भुलाए नहीं जा सकते। वह गायिकी में निपुण थे। उन्होंने आर.डी. बर्मन और गुलजार के साथ मिलकर कुछ गैर फिल्मी गीतों के कई अलबम भी बनाए, जो व्यावसायिक दृष्टि से भले ही कम कामयाब हो पाई हों, लेकिन सच्चे संगीत प्रेमियों के लिए संकलन में वे शीर्ष स्थान पर हैं।

गुलजार भी लता और सुरेश से बहुत अधिक प्रभावित थे। उन्होंने लंबे अंतराल के बाद अपनी फिल्म ‘माचिस’ में उनसे ‘छोड़ आए हम’ और ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’ जैसे गीत गवाए।

विशाल भारद्वाज के साथ सुरेश ने फिल्म ‘सत्या’ और ‘ओमकारा’ में कुछ बेहद अनूठे गीत गाए।

सुरेश ने हिंदी और मराठी गीत के अलावा कुछ गीत भोजपुरी और कोंकणी भाषा में भी गाए हैं। उन्होंने अलग-अलग भाषाओं में कई भक्ति गीत गाए। 2007 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें महाराष्ट्र प्राइड अवार्ड से सम्मानित किया।

वर्ष 2011 में उन्हें को मराठी फिल्म ‘ई एम सिंधुताई सपकल’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। मध्यप्रदेश में उन्हें प्रतिष्ठित लता मंगेशकर अवार्ड से सम्मानित किया गया।

मुंबई और न्यूयॉर्क में सुरेश का अपना संगीत स्कूल है, जहां वह संगीत के विद्यार्थियों को विधिवत शिक्षा देते हैं। उन्होंने संगीत की दुनिया में एक नया अध्याय जोड़ा। उन्होंने आजिवसन म्यूजिक अकादमी नामक पहला ऑनलाइन संगीत स्कूल खोला, जिसके माध्यम से वह नए संगीत महत्वाकांक्षी छात्रों को अपना संगीत ज्ञान और अनुभव देते हैं।

उनके प्रशंसक आज भी उनके गीतों को सुनते हैं और अपने पसंदीदा सुरेश वाडेकर से अब भी नए गीतों की आस लगाए हुए हैं।              –आईएएनएस