Atalji in 1980

जब मैंने अटल जी से बातचीत की –बृजेन्द्र रेही

Atalji

बातचीत के साथ प्रकाशित अटल जी के फोटो

‘‘देश तकदीर के तिराहे पर खड़ा है’’ -अटल बिहारी वाजपेयी====

नयी दिल्ली की रायसीना रोड। कोठी के अहाते में सन्नाटा सा था, किन्तु पोर्च और उसके आसपास कई कारें खड़ी थीं। सूरज इस तरह तप रहा था जैसे गुस्से में जला-भुना हो।

अचानक एक कमरे में टेलीफोन की घंटी सुनाई देती है, मैं उसी ओर लपक लेता हूँ। कमरे में रखे हैं लकड़ी के बेतरतीब खोखे, पुराना फर्नीचर तथा ढेर सारी किताबें। मुझे समझने में देर नहीं लगी कि सत्ता परिवर्तन के चिह्न हैं ये। जब अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे, तब उनकी सूरत देखना भी मुश्किल था। वे देष में टिकते ही कितने थे। टिकते थे तब भी नेताओं के घेरे, अफसरों के जमघट और समर्थकों की भीड़ से बंगले के वराण्डे, लाॅन और कमरे भरे रहते थे। जमघट अब भी होता है, भीड़ अब भी जुटती है पर वह बात नहीं। अब वह सब यादों में ही रह गया है।

भूतपूर्व सूचना प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, विजय कुमार मल्होत्रा और कुछ नेता वराण्डे में खड़े हुए वाजपेयी जी से बतिया रहे हैं। मैं उनके सहायक शिवकुमार के पास इस प्रतीक्षा में बैठा हूं कि कब फुर्सत पाएं और मेरी वाजपेयी जी से बात शुरू हो। सहायक महोदय के सिर पर काम का इतना बोझ है कि वे कमरे में पसरे मौन को तोड़ने में सक्षम नहीं हैं। फिर यकायक कुछ कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते। बीच में टेलीफोन की घंटी टनटना उठती है, वे कहते हैं ‘‘शाम की प्लेन के टिकिट का इंतजाम करना है।’’

उधर से क्या कहा जा रहा है मैं नहीं सुन पाता।

‘‘रुपया कहां है? आप ही प्रबंध करिए?’’
‘‘……………..।’’

‘‘खाता कहां खुला है पार्टी का? खाता खुलवाना है, बैंक मैनेजर से अभी बात की है।’’

टेलीफोन का चोगा रखते हुए उनके चेहरे पर संतोष की परत दिखाई देती है। वे मेरी ओर मुखातिब होकर कहते हैं – ‘‘अरे आप मिल लीजिए, फिर मीटिंग शुरू हो जाएगी।’’

मुझे बताया गया था कि भारतीय जनता पार्टी की कार्यसमिति की बैठक चल रही थी। फिर बताया गया कि बैठक खत्म हो गयी।

खैर, मैं कमरे से निकलकर बरामदे में आया। वाजपेयी जी ने दूर से ही देख लिया। काली और सफेद चैकोर पट्टी की लुंगी तथा बनियान पहने वाजपेयी जी प्रसन्न मुद्रा में थे। पास आने पर कहने लगे – ‘‘जब से आया हूं, फुर्सत ही नहीं मिली, फिर बैठक हो गयी। अन्दर नेता लोग बैठे हैं। बात तो हो ही नहीं सकती।’’

फिर कहने लगे- ‘‘शाम को बंबई चला जाऊँगा…….’’

‘‘बात जल्दी शुुरू कर देंगे फिर जल्दी खत्म कर देंगे’’ मैंने कहा।

‘‘ठीक है, आइए।’’

बातचीत का सिलसिला शुुरू करते हुए मैंने पूछा-

आपने नई पार्टी का गठन किया है। इसमें और भारतीय जनसंघ में क्या फर्क है?
भारतीय जनता पार्टी को नयी पार्टी कहना ठीक नहीं है। हम लोग 1977 से जनता पार्टी में सक्रिय हैं। जनता पार्टी लोगों की आषाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने का सशक्त माध्यम नहीं बन सकी। यह हमारे लिए भी खेद का विषय है। इसका प्रमुख कारण यही रहा कि इस पार्टी में आए लोगों ने अपनी शक्ति और अपना समय व्यर्थ के विवाद में लगा दिया। जो दल जनता पार्टी में शामिल हुए, सच्चे अर्थों में उनका एकीकरण भी नहीं हो पाया……..।

…पर इस सबके लिए आप भी तो जिम्मेदार हैं। मेरा मतलब आपके ‘‘घटक’’ से है?
‘‘नहीं…..!’’ हमने जनता पार्टी को एक रखने की पूरी कोशिश की। जो जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उसका पूरा निर्वाह किया गया। हमारी उपलब्धियां साफ-साफ हैं। संगठन के ढांचे के काम को हमें नहीं सौंपा गया था। हम को तो सही भूमिका का निर्वाह करने से रोका गया। इसलिए रोका गया कि दूसरे लोगों के मन में यह आशंकाएं थीं कि हम हावी न हो जाएं। जब ये बातें लम्बे समय तक चलती रहीं, हमें बराबर अविश्वास की नज़र से देखा जाता रहा, व्यर्थ के विवादों को तूल दिया गया तो हम ऐसी पार्टी बनाने के लिए आतुर हो गए, जो सक्रिय हो, जीवंत हो, जन जीवन से जुड़ी हो, जो लोकतंत्र की रक्षा कर सके तथा सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की सशक्त माध्यम सिद्ध हो सके।

जहां तक जनसंघ की बात कही गई, उसे पुनर्जीवित करने का कोई इरादा नहीं है। अब हम तीन वर्ष की लंबी यात्रा करके आगे निकल चुके हैं। नये अनुभव हमें मिले हैं। सीमित से विषाल धरातल पर आये हैं। समाज के अनेक वर्ग जिन्हें हमारे बारे में गलतफहमियां थीं, वे भी इस काल खंड में हमसे प्रभावित हुए हैं। इसलिए उन पुरानी बातों को हम नहीं दोहरायेंगे जो हमें संकुचित घेरे में बांधे हुए थीं।

भाजपा किन उद्देश्यों और कार्यक्रमों को लेकर जनता के बीच कार्य करेगी?
भारतीय जनता पार्टी लोकतांत्रिक ढांचे को विकृत करने या इसे समाप्त करने के किसी भी प्रयास का डटकर मुकाबला करेगी। जन जीवन की समस्याओं को हल करने के लिए प्रभावी कदम उठाएगी लेकिन जहां जरूरत होगी वहां आंदोलनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर, समाज के सभी वर्गों को, देश को अपने प्रभाव में लाने का भगीरथ कार्य भी पार्टी को करना है।

जनता पार्टी यह सब नहीं कर सकी। इसलिए नहीं कर सकी कि वह सत्ता के संघर्श में फंस गई, घटकवाद के जाल में उलझ गई तथा कार्यकर्ताओं को परिश्रम करने के लिए प्रेरणा नहीं दे सकी, संगठन को खड़ा नहीं किया जा सका। आपातकाल के दौरान और इससे पहले के समग ्रक्रांति के संघर्ष में जो लाखों नौजवान और अन्य नागरिक जुड़े थे, सत्ता प्राप्ति के बाद वे धीरे-धीरे दूर होते गए। संगठन के नाते पार्टी कोई सही भूमिका नहीं निभा सकी और

इस तरह कलह में उलझी पार्टी ने जनता के अटूट विश्वास को खो दिया।

कलह ने विश्वास खोया तो अब क्या आपकी पार्टी उस विश्वास को पाने में सफल हो जाएगी?
बहुत साफ बात है। जनता के विश्वास को पुनः पाने के लिए अथक परिश्रम करना पड़ेगा। इसमें देर भी लगेगी। खोया हुआ विश्वास सहज में पुनः प्राप्त नहीं होता है। इस बात को हम समझते हैं। अब भाषण से ज्यादा आचरण को देखा जाएगा।

एक बात बहुत स्पष्ट है कि पुराने जनसंघ से सम्बन्धित लोगों की विश्वसनीयता उतनी कम नहीं हुई है, जितनी औरों की हुई। पुराने जनसंघ वालों में से दल बदल करने वाले एकाध ही मिलेंगे। जहां तक राजनीतिक व्यवहार का संबंध है, हमने पूरी निष्ठा से उसका परिचय दिया है।

विपक्षी दलों की जहां तक बात है उनमें सबलता गठजोड़ से नहीं आएगी। सबलता तब पैदा होगी, जब राजनीतिक दल तथा उनके कार्यकर्ता उस विश्वास को जगाने में समर्थ होंगे कि वे राजनीति में एक नये अध्याय का श्रीगणेश कर रहे हैं।

मेरा यह मानना है कि हमें पुरानी भूलें स्पष्ट स्वीकार करनी चाहिए। भविष्य के लिए अच्छे व्यवहार की गारंटी देनी चाहिए।

विधान सभा के चुनावों में आपकी पार्टी की क्या भूमिका रहेगी?
लोकसभा के चुनाव एक विशेष स्थिति में हुए थे। प्रधानमंत्री कौन होगा, यह मुद्दा प्रमुख था। विधान सभा के चुनाव अलग स्तर पर लड़े जाएंगे। इन चुनावों में जनता सरकार की उपलब्धियों की भी चर्चा की जाएगी जिनका लोकसभा के चुनावों में जिक्र भी नहीं किया गया। कोषिष यह रहेगी कि हमारी उपलब्धियां कसौटी पर कसी जाएं।

भाजपा हिन्दूवाद तथा धर्मनिरपेक्षता से किस तरह जुड़ी रहेगी?
मैं हिन्दू हूं, यह गर्व का विषय है, किन्तु मेरा हिन्दू होना मुझे अन्य धर्मावलंबियों के साथ मिलकर रहने और समान राष्ट्रीयता, समान नागरिकता में भागीदार बनने से नहीं रोक सकता।

भारत एक प्राचीन राष्ट्र है। इसका जन्म 1947 में नहीं हुआ। बस स्वतंत्रता की प्राप्ति के साथ एक नए अध्याय का श्रीगणेश अवश्य हुआ है। यहां मज़हब के आधार पर ही शासन नहीं चला है। यहां इस्लाम धर्म पहले आया और उसे आदर का स्थान दिया गया। ईसाई मत अंग्रेज राज से पहले भारत में प्रविष्ट हुआ। उन्हें यहां प्रचार-प्रसार की सुविधा दी गई। यहां का राज हमेशा से संप्रदाय निरपेक्ष रहा है। मान लीजिए अगर यहां मुसलमान, ईसाई आदि नहीं होते तो हिन्दू होते। तब भी राज्य का स्वरूप असांप्रदायिक होता। इसलिए कि हिन्दू समाज में ही इतनी उपासना पद्धतियां हैं कि राज किसी एक पद्धति से जुड़कर नहीं रह सकता। सर्वधर्म समभाव, यहां का, हमारे देश का आदर्श रहा है।

श्रीमती गांधी के षासन के तीन माह पर आपकी क्या टिप्पणी है?
श्रीमती गांधी के तीन माह के आचरण और कथन से यह स्पष्ट है कि उन्होंने आपातकाल से कुछ भी नहीं सीखा है। न कुछ उन्होंने भूला है। वे पुनः सत्ता का केन्द्रीयकरण कर रही हैं। निर्णय करने की षक्ति दो मुट्ठियों में कैद हो गई है। राष्ट्रीय सहमति के आधार पर देश को चलाने के बजाए श्रीमती गांधी संघर्ष की राजनीति को बढ़ावा दे रही हैं।

देश के सामने आर्थिक, क्षेत्रीय तथा जो अंतर्राष्ट्रीय संकट विद्यमान हैं, उन्हें देखते हुए यह स्पष्ट जान पड़ता है कि विधान सभा के चुनावों के बाद लोकतंत्र को आरूढ़ करने की जो प्रक्रिया अभी से चल पड़ी है, वह और तेज होगी। स्पष्टतः देश पुनः तकदीर के तिराहे पर आकर खड़ा हो गया है और लोकतंत्र के भविष्य पर पुनः प्रश्नवाचक चिह्न लग गया है।

(17 मई 1980 को जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका से साभार : बृजेन्द्र रेही की लेनिन मीडिया प्रा लि. द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘35 साल पहले’ से )