गांधीजी और धर्म

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अनेकों विषयों पर अपने विचारों से हम सभी को अभिभूत किया है। हम यहां कुछ विषयों पर गांधीजी के विचारों की झलकियां प्रस्तुत कर रहे हैं :

मुल्कराज आनंद द्वारा संपादित तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा प्रकाशित पुस्तिका ‘महात्मा गांधी के अमर विचार’ से साभार

एक बड़ा दिल

वे हिन्दू, जो मुसलमानों में कोई अच्छी चीज़ देखना नहीं चाहते, स्वाभाविक रूप से इस्लाम के पक्षधरों को देखकर स्तब्ध रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में मैं अविचलित और अनुद्विग्न रहता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरे हिन्दू आलोचक मेरे अनुमान के सत्य को समझेंगे। वे शायद महसूस करेंगे कि एकता तब तक नहीं हो सकती जब तक कि प्रत्येक वर्ग दूसरे के विचारों और यहां तक कि कमियों को भी, समझने, सराहने और सहन करने को तैयार नहीं होता। इसके लिए बड़े दिल- या कहिए, उदारशीलता की जरूरत होती है। हम पहले दूसरों का सम्मान करें, तभी हम दूसरों का सम्मान पा सकते हैं।

गो-हत्या और संगीत वादन

हिन्दू गो-हत्या बंद करने के लिए मुसलमानों को मजबूर करने का विचार छोड़ दें और मुसलमान हिन्दुओं को संगीत बंद करने के लिए मजबूर करने का विचार त्यागें। गो-हत्या और संगीत वादन के नियम, संबंधित समुदायों के सौहार्द पर छोड़े देने चाहिए। सहिष्णुता की भावना के विकास के साथ-साथ प्रत्येक प्रथा उचित अनुपात ग्रहण कर लेगी।

कुरान, बाइबिल, जेंद अवेस्ता और गुरू ग्रंथ साहब

कुरान को दैवी संदेश मानने में मुझे उसी तरह कोई संकोच नहीं है, जिस तरह बाइबिल, जेंद अवेस्ता, ग्रंथ साहब और दूसरे-ग्रंथों को दैवी-संदेश मानने में कोई संकोच नहीं है। दैवी संदेश देश और जाति की सीमा से परे एक विशिष्ट गुण है।

बेकार के सपने

हिन्दुओं का यह उम्मीद करना कि इस्लाम, ईसाई अथवा पारसी धर्म भारत से बाहर कर दिए जाएं, उतना ही बेकार का सपना है जितना कि मुसलमानों द्वारा पूरे विश्व में  इस्लामी शासन की कल्पना करना।

धर्म का सम्मान

लंबे अध्ययन और अनुभव के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि सारे धर्म सच्चे हैं। हर धर्म में कुछ-न-कुछ खामी हैं। मुझे सारे धर्म उतने ही प्रिय हैं, जितना कि मेरा अपना हिन्दू धर्म, ठीक वैसे ही जैसे मुझे सारे मनुष्य उतने ही प्रिय होने चाहिए जितने कि निकट संबंधी। अन्य धर्मों का भी मैं उतना ही सम्मान करता हूं जितना कि अपने धर्म का।

धर्म हमें एक दूसरे से विद्वेष करना नहीं सिखाता। मित्र से मित्रता करना आसान है लेकिन ऐसे व्यक्ति से जो अपने को आपका दुश्मन समझता हो, मित्रता करना ही सच्चे धर्म की पहचान है। बाकी तो सब व्यापार है।

धर्म परिवर्तन

भगवान के नाम पर आत्मा को जीतने की बात करना बेकार है। क्या भगवान इतना असहाय है कि वह स्वयं आत्मा को नहीं जीत सकता? हर आदमी का धर्म उसका अपना निजी मामला है।