पति-पत्नी तथा विवाह के संबंध में गांधीजी के विचार

पत्नी पति की दासी नहीं

पत्नी का दर्जा एक मित्र और सहयोगिनी का है, दासी का नहीं। वह अपने पति के सुख-दुख में बराबरी की हिस्सेदार है तथा अपना मार्ग निर्धारित करने में उतनी ही स्वतंत्र भी।

मुल्कराज आनंद द्वारा संपादित तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा प्रकाशित पुस्तिका ‘महात्मा गांधी के अमर विचार’ से साभार

पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के पूरक

पुरुष और स्त्री का सामाजिक दर्जा यद्यपि एक-दूसरे के समान है लेकिन समरूप नहीं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वे एक-दूसरे के सहयोगी हैं तथा एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं।

नारी

नारी जब अपने बारे में न सोचकर अपने से निर्धन और अभागे लोगों के बारे में सोचने लगती है, तो वह दया की प्रतिमूर्ति बन जाती है।

संतति-निग्रह

इस संबंध में मुख्य समस्या यह है कि अभी तक भारत में पत्नियाँ अपने पतियों को, जब वे शारीरिक संबंधों का प्रस्ताव रखते हैं, मना करना नहीं सीख पाई हैं। यदि वे शिक्षित होतीं, यदि वे ऐसे अवसरों पर प्रतिरोध करना सीख जातीं तो यह समस्या स्वयं ही हल हो जाती।

थोपी गई शादियाँ

युवकों को अपने में इतना साहस विकसित करना चाहिए कि वे अपने ऊपर थोपे जा रहे विवाह को अस्वीकार कर सकें। जीवन के किसी भी क्षेत्र में यदि उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई निर्णय लिया जा रहा हो तो उनमें प्रतिरोध करने का और अकेले खड़े होने का साहस होना चाहिए।

दहेज

कोई भी युवक जो दहेज को विवाह की शर्त बनाता है, वह नारी जाति का अपमान करता है। साथ ही, अपनी शिक्षा और अपने देश का नाम भी कलंकित करता है।

माँ-बाप को अपनी लड़कियों को इस प्रकार शिक्षित करना चाहिए कि वे दहेज लोलुप युवकों से विवाह करने की अपेक्षा अविवाहित रहना ही पसन्द करें। आपसी प्यार और स्वीकृति से ही शादियाँ सम्मानजनक तरीके से हो सकती हैं।

शादियों में फिजूल खर्च

बहादुर युवकों को अपने विवाह के अवसर पर फिजूलखर्चियों के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए।