Delta Plus variant

डेल्टा प्लस वैरियंट और कोविड-19 की तीसरी लहर, क्या हैं हालात?

डेल्टा प्लस वैरियंट (Delta Plus variant) और कोविड-19 की तीसरी लहर, क्या हैं हालात? क्या महामारी की भावी लहरों को रोका जा सकता है?

इस सवाल का जवाब दिया है इंडियन सार्स-कोव-2 जेनोमिक्स कॉन्सॉर्टियम (INSACOG) के सह-अध्यक्ष डॉ. एनके अरोड़ा ने।

डॉ. एनके अरोड़ा ने एक साक्षात्कार में कहा कि वायरस ने आबादी के उस हिस्से को संक्रिमत करना शुरू किया है, जो हिस्सा सबसे जोखिम वाला है। संक्रमित के संपर्क में आने वालों को भी वह पकड़ता है। आबादी के एक बड़े हिस्से को संक्रमित करने के बाद वह कम होने लगता है और जब संक्रमण के बाद पैदा होने वाली रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगती है, तो वह फिर वार करता है।

उन्होंने कहा कि अगर नये और ज्यादा संक्रमण वाले वैरियंट पैदा हुये, तो मामले बढ़ सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो अगली लहर उस वायरस वैरियंट की वजह से आयेगी, जिसके सामने आबादी का अच्छा-खासा हिस्सा ज्यादा कमजोर साबित होगा।

डॉ. एनके अरोड़ा के अनुसार दूसरी लहर अभी चल रही है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीके लगें, लोग कड़ाई से कोविड उपयुक्त व्यवहार करें और जब तक हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से को टीके न लग जायें, हम सावधान रहें, तो भावी लहर को नियंत्रित किया जा सकता है और उसे टाला जा सकता है।

डॉ. एनके अरोड़ा ने वैरियंट की जांच और उसके व्यवहार के हवाले से मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) के बारे में चर्चा की। यह जांच यह जानने के लिये की जाती है कि डेल्टा वैरियंट इतना संक्रामक क्यों है।

उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह जेनोमिक निगरानी के जरिये इसे फैलने से रोका गया। उन्होंने फिर जोर देकर कहा कि कोविड उपयुक्त व्यवहार बहुत अहमियत रखता है।

आईएनएसएसीओजी (Indian SARS-CoV-2 Genomics Consortium), स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, बायोटेक्नोलॉजी विभाग, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) तथा वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की 28 प्रयोगशालाओं का संघ है, जो कोविड-19 महामारी के संदर्भ में जिनोम सीक्वेंसिंग करता है। आईएनएसएसीओजी को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 25 दिसंबर, 2020 को गठित किया था।

आईएनएसएसीओजी (INSACOG) ने हाल में अपना दायरा बढ़ाया है। इस विस्तार के पीछे की क्या सोच है?

अति गंभीर रूप से बीमार करने वाले वैरियंट के उभरने पर कड़ी नजर रखने की जरूरत थी। उसके फैलाव को भी बराबर देखना था, ताकि बड़े इलाके में उसके फैलाव को पहले ही रोका जा सके।

SARS-CoV-2 की जिनोम आधारित पड़ताल करने के लिये प्रयोगशालाओं के मजबूत तंत्र की जरूरत महसूस की गई, ताकि उनके जरिये जिनोम सीक्वेंसिंग के सारे आंकड़ों का रोग और महामारी वाले आंकड़ों के साथ मिलान किया जाये तथा देखा जाये कि वैरियंट-विशेष कितना संक्रामक है, उससे बीमारी कितनी गंभीर होती है, वह शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को चकमा दे सकता है या नहीं या टीके लगवाने के बाद उससे दोबारा संक्रमण हो सकता है या नहीं; यानी, उससे वैक्सीन के प्रभाव पर कितना असर पड़ता है और निदान का जो मौजूदा तरीका है, वह उसके लिये पर्याप्त है या नहीं।

डॉ. एनके अरोड़ा के अनुसार राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) फिर इन आंकड़ों का विश्लेषण करता है। पूरे देश को भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा गया है और हर प्रयोगशाला को किसी न किसी विशेष क्षेत्र की जिम्मेदारी दी गई है। हमने 180-190 क्लस्टर बनायें हैं और हर क्लस्टर में चार-चार जिलों को रखा है।

उन्होंने यह भी बताया कि हम औचक रूप से नमूनों की जांच करते रहते हैं। साथ ही गंभीर रूप से बीमार, टीका लगवाने के बाद संक्रमित लोगों के नमूनों की भी जांच करते हैं। इसके अलावा लक्षण रहित लोगों के नमूनों को भी देखा जाता है। इन सब नमूनों को जमा करके उनकी सीक्वेंसिंग करने के लिये इलाके की प्रयोगशाला में भेज दिया जाता है।

डॉ. एनके अरोड़ा के अनुसार इस समय देश में हर महीने 50 हजार से अधिक नमूनों की सीक्वेंसिंग करने की क्षमता है। पहले हमारे पास लगभग 30 हजार नमूनों को हर महीने जांचने की ही क्षमता था।

वैरियंट की जांच और उसके व्यवहार की निगरानी करने की क्या प्रणाली देश के पास है?

भारत के पास बीमारियों पर नजर रखने के एक मजबूत प्रणाली मौजूद है, जो इंटीग्रेटेड डिजीज सर्वेलांस प्रोग्राम (आईडीएसपी) के तहत काम करती है।

आईडीएसपी नमूनों को जमा करने और उन्हें जिलों/निगरानी स्थलों से क्षेत्रीय जिनोम सीक्वेंसिंग प्रयोगशालाओं (आरजीएसएल) तक पहुंचाने का समन्वय करता है।

आरजीएसएल की जिम्मेदारी है कि वह जिनोम सीक्वेंसिंग करे,गंभीर रूप से बीमार करने वाले (वैरियंट ऑफ कंसर्न – वीओसी) या किसी विशेष वैरियंट (वैरियंट ऑफ इंटरेस्ट – वीओआई) की पड़ताल करे और म्यूटेशन पर नजर रखे।

वीओसी/वीओआई की सूचना सीधे केंद्रीय निगरानी इकाई को दी जाती है, ताकि राज्य के निगरानी अधिकारियों के साथ रोग-महामारी के आपसी सम्बंध पर समन्वय बनाया जा सके, ताकि उन्हें मालूम हो सके कि यह रोग या महामारी कितनी भीषण है। उसके बाद नमूनों को बायो-बैंकों में भेज दिया जाता है।

आरजीएसएल जब जन स्वास्थ्य से जुड़े किसी जिनोम म्यूटेशन की पहचान कर लेती है, तो उसकी रिपोर्ट वैज्ञानिक और उपचार सलाहकार समूह (एससीएजी) को सौंप देती है।

एससीएजी उसके बाद वीओआई और अन्य म्यूटेशन पर विशेषज्ञों की राय लेता है और अगर जरूरी हुआ तो आगे पड़ताल के लिये केंद्रीय निगरानी इकाई को उसकी सिफारिश करता है।

एनसीडीसी की इकाई आईडीएसपी रोग-महामारी के आपसी सम्बंध और अन्य सूचनाओं को स्वास्थ्य मंत्रालय, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद्, बायोटेक्नोलॉजी विभाग, वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद तथा राज्य के अधिकारियों के साथ साझा करती है।

आखिर में, नये म्यूटेशन/गंभीर रूप से बीमार करने वाले वैरियंट को प्रयोगशाला में जांचा जाता है और उसकी संक्रामकता, घातकता, वैक्सीन के प्रभाव और शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को चकमा देने की ताकत का मूल्यांकन किया जाता है।

डेल्टा वैरियंट से पूरी दुनिया में चिंता फैली हुई है। यह वैरियंट इतना घातक क्यों है?

इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि कोविड-19 के बी.1.617.2 को डेल्टा वैरियंट कहा जाता है। पहली बार इसकी शिनाख्त भारत में अक्टूबर 2020 में की गई थी। हमारे देश में दूसरी लहर के लिये यही प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। आज नये कोविड-19 के 80 प्रतिशत मामले इसी वैरियंट की देन हैं। यह महाराष्ट्र में उभरा और वहां से घूमता-घामता पश्चिमी राज्यों से होता हुआ उत्तर की ओर बढ़ा। फिर देश के मध्य भाग में और पूर्वोत्तर राज्यों में फैल गया।

डॉ. एनके अरोड़ा ने कहा कि  यह म्यूटेशन स्पाइक प्रोटीन से बना है, जो उसे एसीई2 रिसेप्टर से चिपकने में मदद करता है। एसीआई2 रिसेप्टर कोशिकाओं की सतह पर मौजूद होता है, जिनसे यह मजबूत से चिपक जाता है। इसके कारण यह ज्यादा संक्रामक हो जाता है और शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को चकमा देने में सफल हो जाता है। यह अपने पूर्ववर्ती अल्फा वैरियंट से 40-60 प्रतिशत ज्यादा संक्रामक है और अब तक यूके, अमेरिका, सिंगापुर आदि 80 से ज्यादा देशों में फैल चुका है।

अन्य वैरियंट की तुलना में क्या यह ज्यादा गंभीर रूप से बीमार करता है?

ऐसे अध्ययन हैं, जो बताते हैं कि इस वैरियंट में ऐसे कुछ म्यूटेशन हैं, जो संक्रमित कोशिका को अन्य कोशिकाओं से मिलाकर रुग्ण कोशिकाओं की तादाद बढ़ाते जाते हैं। इसके अलावा जब ये मानव कोशिका में घुसपैठ करते हैं, तो बहुत तेजी से अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं। इसका सबसे घातक प्रभाव फेफड़ों पर पड़ता है। बहरहाल, यह कहना मुश्किल है कि डेल्टा वैरियंट से पैदा होने वाली बीमारी ज्यादा घातक होती है। भारत में दूसरी लहर के दौरान होने वाली मौतें और किस आयुवर्ग में ज्यादा मौतें हुईं, ये सब पहली लहर से मिलता-जुलता ही है।

डेल्टा वैरियंट (Delta variant) के मुकाबले डेल्टा प्लस वैरियंट ज्यादा घातक है?

डेल्टा प्लस वैरियंट (Delta Plus variant) – एवाई.1 और एवाई.2 – अब तक 11 राज्यों में 55-60 मामलों में देखा गया है। इन राज्यों में महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्यप्रदेश शामिल हैं। एवाई.1 नेपाल, पुर्तगाल, स्विट्जरलैंड, पोलैंड, जापान जैसे देशों में भी मिला है। इसके बरक्स एवाई.2 कम मिलता है। वैरियंट की संक्रामकता, घातकता और वैक्सीन को चकमा देने की क्षमता आदि का अध्ययन चल रहा है।

क्या डेल्टा वैरियंट के खिलाफ वैक्सीन कारगर है?

जी हां। इस मुद्दे पर आईसीएमआर के अध्ययन के अनुसार मौजूदा वैक्सीनें डेल्टा वैरियंट के खिलाफ कारगर हैं।

देश के कुछ भागों में अब भी मामलों में तेजी देखी जा रही है। ऐसा क्यों?

देश के तमाम भागों में मामलों में गिरावट दर्ज की जा रही है, लेकिन कुछ हिस्सों में आज भी पॉजीटिविटी दर ऊंची है, खासतौर से देश के पूर्वोत्तर क्षेत्रों और दक्षिणी राज्यों के कई जिलों में। इनमें से ज्यादातर मामले डेल्टा वैरियंट के कारण हो सकते हैं।

 

दूसरी लहर अभी चल रही है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीके लगें, लोग कड़ाई से कोविड उपयुक्त व्यवहार करें और जब तक हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से को टीके न लग जायें, हम सावधान रहें, तो भावी लहर को नियंत्रित किया जा सकता है और उसे टाला जा सकता है।

लोगों को कोविड-19 के खिलाफ टीके और कोविड उपयुक्त व्यवहार पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।